प्रत्येक संसद सदस्य को अपने क्षेत्र के विकास के लिए सांसद निधि के तहत हर साल पांच करोड़ रुपये दिये जाते हैं. सदस्य के सुझाव के आधार पर इस राशि से क्षेत्र में विकास कार्य कराये जाते हैं. हालांकि, इस प्रक्रिया पर सवाल हैं. स्थानीय क्षेत्र विकास के लिए सांसदों को दिया जानेवाला यह फंड शुरू से ही गलत है, क्योंकि सांसदों का यह कार्य नहीं है. योजनाओं को लागू करने और क्षेत्र में विकास कराने की जिम्मेदारी कार्यपालिका की होती है.
लोकतंत्र के तीन प्रमुख तंत्र हैं- न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका. तीनों का ही कार्य और अधिकार क्षेत्र निर्धारित है. संसद के सदस्यों का कार्य अलग-अलग विषयों पर विस्तृत चर्चा कर कानून बनाना है. जबकि, कार्यपालिका का काम है- संसद द्वारा पारित कानून को प्रभावी तरीके से लागू करना और न्यायपालिका की जिम्मेदारी है कि वह तय करें कि कानून संविधान के दायरे में है कि नहीं. कानूनों की वैधानिकता को जांचने और व्याख्या करने की जिम्मेदारी न्यायपालिका की ही है.
अब सवाल उठता है कि सांसदों का जब यह काम ही नहीं है, तो उन्हें स्थानीय क्षेत्र विकास के लिए फंड देने का औचित्य ही क्या है? जनता का पैसा सांसदों को दे दिया जाता है, अब वे अपने क्षेत्र में जो चाहें, वह करें. हालांकि, एमपीलैड (सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना कार्यक्रम) फंड को जारी करने और उसके इस्तेमाल के लिए तमाम तरह के दिशा-निर्देश बनाये गये हैं. उन दिशा-निर्देशों का अनुपालन होना आवश्यक है. हालांकि, कई काम नियमों के अनुसार नहीं होते.
हाल में सरकार ने बताया कि एमपीलैड के तहत जारी कुल राशि में 5275 करोड़ रुपये खर्च नहीं किये गये. साल 2014 में चुने गये सांसदों ने 2004 और 2009 में चुने गये सांसदों के मुकाबले अपने फंड का प्रभावी तरीके से इस्तेमाल नहीं किया था. एमपीलैड योजना के तहत 15वीं से 16वीं लोकसभा के बीच खर्च न की जानेवाली राशि में 214 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हुई थी. जबकि, सांसद द्वारा स्थानीय स्तर पर शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, कृषि और सड़कों आदि के विकास के लिए इस राशि को खर्च किया जाना चाहिए. इस योजना के दिशा-निर्देशों के अनुसार, स्थानीय स्तर पर सार्वजनिक हितों को ध्यान में रख कर इस राशि का इस्तेमाल किया जाये, लेकिन अक्सर यह होता नहीं.
संसदीय क्षेत्र में विकास कार्यों के लिए सांसदों को दी जानेवाली इस राशि से जुड़ा मामला जब सर्वोच्च न्यायालय में गया, तो न्यायालय को बताया गया कि सांसद तो केवल विकास कार्यों के लिए अपना सुझाव देते हैं. विकास कार्य को करने की जिम्मेदारी तो सरकारी अधिकारियों की होती है. व्यावहारिक तौर पर देखें, तो ऐसा कौन सा आइएएस ऑफिसर है, जो अपने क्षेत्र के सांसद की बात नहीं मानेगा. कुल मिलाकर यह सांसदों और विधायकों को जनता का पैसा देने का एक तरीका है.
नियम के अनुसार यह प्रक्रिया ही असंवैधानिक है, लेकिन जब सर्वोच्च न्यायालय ने इसे मंजूरी दी है, तो इस पर सवाल ठीक नहीं. गौर करनेवाली बात है कि इस योजना के तहत जारी होनेवाला काफी फंड विकास कार्यों के लिए खर्च ही नहीं किया जाता. दूसरी बात, जो फंड खर्च भी किया जाता है, वह किस तरह के कार्यों पर किया जाता है, इसकी भी जानकारी जरूरी है. इस योजना के तहत किये गये कार्यों का फायदा किसे होता है, इस सवाल का भी हल ढूंढना जरूरी है.
पूर्वी दिल्ली में एक झुग्गी बस्ती है. वहां के जनप्रतिनिधि ने एक सूखे हुए पार्क में पानी का फव्वारा लगवा दिया. वहां लोगों के पास पीने का पानी नहीं था, तो फव्वारे के लिए पानी कहां से पहुंचता. कुछ लोगों का कहना था कि फव्वारा लगानेवाला ठेकेदार उस माननीय का रिश्तेदार था. इस प्रकार उस पैसे का दुरुपयोग ही हुआ. अगर स्थानीय स्तर पर ऐसे विकास कार्य कराये जायें, जिससे आमजन को फायदा हो, तो इस राशि की सार्थकता है, जोकि इस योजना के उद्देश्य में निहित है, अन्यथा पैसे का दुरुपयोग ठीक नहीं है.
नकुल मिलाकर देखें, तो एमपीलैड के तहत जारी पैसा किस तरह से खर्च किया जाता है, यह छिपी हुई बात नहीं है, लोगों को इसकी जानकारी होती है. इसका दूसरा पहलू भी है. कई ऐसे सांसद भी हैं, जो अपने क्षेत्र में विकास के लिए इस राशि का ईमानदारी से इस्तेमाल करते हैं. एक सांसद ने आईआईटी कानपुर में अपने फंड से एक नयी लैब बनवा दी थी. यह अच्छी बात है, लेकिन ऐसे काम करनेवाले बहुत कम लोग होते हैं.
जो सांसद अच्छा काम करते हैं, वे गिने-चुने ही हैं, ज्यादातर सांसद इन पैसों का गलत ही इस्तेमाल करते हैं. लोग अपने स्तर पर अच्छाई के लिए तो आगे आयेंगे नहीं. जब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपनी मुहर लगा दी है, तो यह चलता ही रहेगा. एमपीलैड की काफी राशि बची रह जाती है. हालांकि, इसके गलत इस्तेमाल से यह बेहतर ही है.
एमपीलैड जनता के पैसे का दुरुपयोग है. इसका ज्यादा कोई फायदा फिलहाल होता नहीं दिख रहा है. जनप्रतिनिधियों को जो काम दिया गया है, उस पर वे ईमानदारी के साथ काम करें, तो बेहतर होगा. उन्हें संसद में बैठकर कानून बनाना चाहिए, उन्हें इससे जुड़े अध्ययन करने चाहिए. अपने क्षेत्रों में जाकर लोगों से मिलना चाहिए और यह पूछना चाहिए कि उनकी क्या अपेक्षाएं हैं. यह सब ये लोग करते नहीं हैं. कुल मिलाकर इस फंड से कोई विशेष फायदा है नहीं, नुकसान अधिक है.
The article was originally published on Prabhat Khabar.