Text: जब से उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ ने संविधान के 99वें संशोधन को असंवैधानिक घोषित करते हुए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को खारिज किया और कोलेजियम व्यवस्था का पक्ष लिया तब से यह विषय लगातार चर्चा में है। अधिकतर टिप्पणीकारों ने इसे या तो सरकार और न्यायपालिका के बीच का संघर्ष कहा है या फिर संसद और न्यायपालिका के बीच का संघर्ष बताया है, लेकिन अगर थोड़ा गहराई से देखा जाए तो असलियत कुछ और ही है। इसके लिए यह समझने की आवश्यकता है कि सरकार कहां से आती है या कैसे बनती है? जब सामान्य लोगों से पूछा जाता है कि सरकार कहां से आती है या कैसे बनती है तो आम तौर पर यही उत्तर सुनने को मिलता है कि हम ही सरकार को चुनते-बनाते हैं। यह इस बात का प्रमाण तो है कि लोकतांत्रिक विचार देश के सामान्य नागरिकों के दिल में घर कर चुके हैं, लेकिन वास्तव में यह पूरी सच्चाई नहीं है कि आम नागरिक ही सरकार को चुनते हैं। नागरिक या मतदाता उन उम्मीदवारों में से किसी को चुनते हैं जिन्हें राजनीतिक दलों ने अपनी पार्टी का टिकट दिया होता है। चुने हुए उम्मीदवारों से ही संसद बनती है और जिस दल का संसद में और विशेष रूप से लोकसभा में बहुमत होता है वही सरकार बनाता है। इसलिए चाहे हम इस संघर्ष को सरकार और न्यायपालिका के बीच का संघर्ष कहें या फिर संसद और न्यायपालिका के बीच का, वास्तव में यह संघर्ष राजनीतिक दलों और न्यायपालिका के बीच में है, क्योंकि संसद और सरकार दोनों कोबनाने के पीछे वास्तव में राजनीतिक दल ही होते हैं। 1राजनीतिक दलों का देश के कानूनों के प्रति क्या रवैया है, यह पिछले कुछ समय में न्यायालय में पेश हुए कई मुद्दों में स्पष्ट हो चुका है। इनमें सबसे मुख्य है राजनीतिक दलों पर सूचना के अधिकार यानी आरटीआइ का लागू होना। सूचना अधिकार कानून को लागू कराने वाली मुख्य संस्था- केंद्रीय सूचना आयोग ने यह निर्णय दिया था कि देश के छह राष्ट्रीय राजनीतिक दल (भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) सूचना अधिकार कानून के अंतर्गत सार्वजनिक प्राधिकरण (पब्लिक अथॉरिटी) हैं। राजनीतिक दलों ने इस फैसले को मानने से इंकार कर दिया और अभी तक इन छह में से किसी भी राजनीतिक दल ने इस निर्णय का पालन नहीं किया है। इस फैसले को न मानने पर जब केंद्रीय सूचना आयोग ने इन राजनीतिक दलों को ‘कारण बताओ’ नोटिस जारी किए तो इन दलों ने उन नोटिसों के जवाब देने की भी जरूरत नहीं महसूस की। ऐसा तब हुआ जब सूचना अधिकार कानून को संसद ने सर्वसम्मति से पारित किया था। इससे यह साफ-साफ पता चलता है कि राजनीतिक दलों को यह विश्वास है कि वे देश के कानूनों से ऊपर हैं। संभवत उन्हें यह भ्रम इसलिए है, क्योंकि उन्हें या उनके नामांकित लोगों को (जो चुनावों में जीत कर सांसद बने हैं) कानून बनाने का अधिकार है। शायद इसी अधिकार के चलते वे खुद को कानून के दायरे से बाहर मान रहे हैं। 1ऐसा लगता है कि राजनीतिक दलों को या ठीक से कहा जाए तो राजनीतिक दलों के नेताओं को अभी तक यह समझ नहीं आया है कि लोकतांत्रिक प्रणाली में कानून देश के सब नागरिकों पर और सब ईकाइयों पर बराबरी से लागू होते हैं। यह वह तथ्य है संविधान के 14वें अनुच्छेद में दिया गया है। ऐसा नहीं है कि यह भ्रम केवल किसी एक विशेष दल को या किसी एक विशेष दल के नेतृतव में बनाई गई सरकार को ही है या वर्तमान सरकार को ही है। ठीक ऐसे ही काम दूसरे दलों के नेतृतव में बनी सरकारों ने भी किए हैं। 1असलियत यह है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान यानी कोलेजियम जिसे संविधान के 99वें संशोधन ने बदलने का प्रयत्न किया, पहले की एक सरकार की ओर से न्यायधीशों की नियुक्ति में छेड़छाड़ करने के कारण बनाया गया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि हर सरकार न्यायपालिका पर हावी होने का प्रयत्न करती है। इसका कारण यह है कि भारत के संविधान ने संसद यानी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को बराबर का दर्जा दिया है। संघ यानी स्टेट के ये तीनों स्तंभ अपने आप में स्वतंत्र हैं और किसी को भी दूसरे के कार्याधिकार में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं है। कार्यपालिका संसद अर्थात विधायिका के नियंत्रण में है। इस हिसाब से देखें तो यह स्पष्ट है कि कार्यपालिका और विधायिका, दोनों पर राजनीतिक दलों का नियंत्रण है। इसी कारणवश राजनीतिक दलों का यह प्रयत्न होता है कि अगर न्यायपालिका पर भी उनका नियंत्रण हो जाए तो उनका संपूर्ण कार्यप्रणाली पर नियंत्रण हो सकता है। 1न्यायपालिका अपने उत्तरदायित्व के प्रति सजग है। वह संविधान की व्याख्या करती है और अपनी स्वतंत्रता की बहुत सावधानी से रक्षा भी करती है। न्यायाधीशों की नियुक्त संबंधी मौजूदा व्यवस्था में सुधार करने के लिए उच्चतम न्यायालय ने अपने 17 अक्टूबर के निर्णय में सुझाव मांगे हैं जिसके लिए अगली सुनवाई 3 नवंबर को होगी। सरकार और राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे अपने सारे सुझाव 3 नवंबर की सुनवाई में रखें। न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करना और न्यायाधीशों की नियुक्ति के वर्तमान प्रावधान यानी कोलेजियम व्यवस्था को सुधारना सबकी संयुक्त जिम्मेदारी है और इसे मिलकर निभाना ही देश और देश की जनता के हित में है।