पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों का अंतिम दौर चल रहा है। धर्म और जाति को लेकर बयानबाजी के जरिए नेताओं की वोट मांगने की कोशिशें जारी हैं। विशेषतौर पर उत्तर प्रदेश चुनाव के संदर्भ में जिस तरह की बयानबाजी हुई, उसे लेकर चुनाव आयोग ने अब जाकर जातिगत और धार्मिक बयानों के जरिए वोट हासिल करने वालों को ऐसा न करने की नसीहत दी है। यदि सपाट दृष्टि से देखें तो चुनाव आयोग इससे अधिक कर भी क्या सकता है।
वह किसी को जेल में तो डाल नहीं सकता। वह तो जांच करवा सकता है। लेकिन, हमारे यहां सबसे बड़ी कमी है कि तमाम जांच प्रक्रिया में समय बहुत लग जाता है और हालात में सुधार नहीं हो पाता है। इसी का फायदा राजनीतिक दल और नेता उठाते हैं। ऐसा पहली बार नहीं है कि चुनाव आयोग ने ही धर्म और जाति के इस्तेमाल को लेकर चेतावनी दी हो। सर्वोच्च न्यायालय पहले ही इस मामले में दिशानिर्देश जारी कर चुका है।
चुनाव आयोग ने एक बार आगे बढ़कर जेल में बंद व्यक्ति के चुनाव लडऩे पर आपत्ति जताई थी। जेल में बंद व्यक्ति को चुनाव लडऩे से रोकने को लेकर चुनाव आयोग ने तर्क दिया था कि जिस व्यक्ति का नाम मतदाता सूची में है, वही चुनाव लड़ सकता है लेकिन जो व्यक्ति जेल में है और उसके पते पर वह नहीं मिलता है तो उस व्यक्ति का नाम तकनीकी आधार पर मतदाता सूची से हटाया जा सकता है। मतदाता सूची में नाम नहीं होने पर व्यक्ति को चुनाव लडऩे से रोका जा सकता है।
इसे वर्तमान केंद्र सरकार ने ही चुनौती दी और न्यायालय में कहा कि किसी भी गलतफहमी के कारण किसी व्यक्ति को कुछ समय के लिए जेल में डाल दिया जाना काफी सरल होता है। इस तरह से किसी को चुनाव लडऩे के अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के इस तर्क को मान लिया और चुनाव आयोग की याचिका रद्द कर दी। हालांकि हाल ही में चुनाव आयोग की पहल पर ही बसपा नेता मुख्तार अंसारी की पैरोल रद्द हुई।
चुनाव आयोग ने तर्क दिया कि मुख्तार अंसारी जो मऊ से विधायक रह चुके हैं और भाजपा विधायक कृष्णानंद राय हत्याकांड मामले के आरोपित हैं। आशंका है कि चुनाव के लिए पैरोल पर छूटने के दौरान वे गवाहों को प्रभावित कर सकते हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग के पक्ष को सही मानते हुए, अंसारी के पैरोल को रद्द कर दिया। चुनाव आयोग को इन्हीं कामों को आगे बढ़ाना चाहिए। यह बात सही है कि उसके पास सीधे तौर पर दंडात्मक अधिकार नहीं है। लेकिन, कुछ अधिकारों का तो वह प्रयोग कर ही सकता है।
उदाहरण के तौर पर चुनाव आयोग इस पर निगाह तो रखता ही है कि चुनाव आचार संहिता के दौरान कौनसा उम्मीदवार या राजनीतिक दल आदर्श आचार संहिता का पालन कर रहा है अथवा नहीं। यदि चुनाव आयोग को लगता है कि कोई उम्मीदवार या राजनीतिक दल आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन कर रहा है तो सबसे पहले तो उम्मीदवार और उसके राजनीतिक दल को चेतावनी देनी चाहिए। फिर, तीन चेतावनी के बावजूद वे नहीं मानें तो उम्मीदवारों की सूची से उसका नाम हटा दिया जाए। इसके बाद बॉल उम्मीदवार या राजनीतिक दल के पाले में होगी।
हालांकि ऐसा करने पर उम्मीदवार न्यायालय के चक्कर लगाने शुरू कर देंगे। यह भी हो सकता है कि गलती को समझते हुए उम्मीदवार न्यायालय की शरण न ले और यह भी हो सकता है कि चुनाव आयोग की इस कार्रवाई की आशंका के मद्देनजर वह पहले से ही सावधानी बरते। कुछ मामले इसी तरह के होने के बाद यह संभावना अधिक है कि चुनाव आयोग की चेतावनियों को राजनीतिक दल और उम्मीदवार गंभीरता से लेने लगें।
इन चेतावनियों की उपेक्षा कर पाना उनके लिए सरल नहीं होगा। दरअसल, हमें समझ में आना चाहिए कि चुनाव में पैसे का खेल तो चल ही रहा है। नोटबंदी से आंशिक अंकुश ही लग पाया होगा वरना तो हम सभी जानते हैं कि चुनाव के दौरान सीमा से अधिक धन व्यय हो रहा है। आखिर यह पैसा आ कहां से रहा है? हमें अपने आप से यह सवाल करना चाहिए कि हम किन लोगों को अपना अमूल्य वोट दे रहे हैं। वह व्यक्ति तो इंग्लैंड में शरण लिये बैठा है, जो हमारी राज्यसभा का ही सदस्य रहा है।
आखिर, राज्यसभा में भेजने के लिए उसे किन लोगों ने वोट दिया था? वास्तव में केवल चुनाव आयोग ही सारे अंकुश लगवाए, यह भी ठीक नहीं। आम मतदाता को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। इसके लिए उन्हें भी जागरूक करना बहुत जरूरी है। उन्हें समझ में आना चाहिए कि कौन व्यक्ति धर्म-जाति के नाम पर वोट मांग रहा है। आखिर, इस तरह से वोट मांगने के क्या दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं?
चुनाव आयोग अपना काम करेगा तो मतदाता भी चुनाव के दौरान अपना काम करें। वे भी उम्मीदवार, राजनीतिक दल को समझकर अपना वोट दें। धर्म-जाति के नाम पर वोट मांगने वालों से सावधान रहें और उन्हें अपने मत के जरिए ऐसा सबक सिखाएं कि अगली बार कोई आचार संहिता के उल्लंघन करने की बात मन में सोचे तक नहीं।
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