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पारदर्शिता से परहेज करते राजनीतिक दल

केन्द्रीय सूचना आयोग के फैसले को डस्टबिन में डालने के बाद सरकार राजनीतिक दलों को सूचना अधिकार कानून 2005 के दायरे से बाहर करने की जुगत में है। सरकार के इस प्रस्ताव पर लेफ्ट-राइट किसी के भी ऐतराज करने की गुंजाइश नहीं है। पारदर्शिता और खुलासा हमेशा से ‘पड़ोस’ की वस्तु रहे हैं और राजनीतिक दल ‘शुचिता’, पारदर्शिता और जवाबदेही को ‘पड़ोस’ की वस्तु बनाये रखने के अ भियान में माहिर हैं। ‘दाग’ और ‘धब्बे’ भारतीय राजनीति का सबसे प्रचलित जुमला है और पूरी राजनीति ले ‘मेरी कमीज तुझसे सफेद’ की तर्ज पर चल रही हो, लेकिन जब भी ‘हमाम’ की बारी आती है, सब नंगे एक साथ हो जाते हैं।

केन्द्र की मोदी सरकार उन छहों राजनीतिक दलों के बचाव में कमर कसकर मैदान में है, जिन्हें राष्ट्रीय दल का दर्जा प्राप्त है और केन्द्रीय सूचना आयोग ने सरकारी अनुदान, जमीनों के अनुदानित आवंटन इत्यादि के चलते उन्हें सार्वजनिक संस्थान करार दिया हुआ है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में चल रही याचिका पर राजनीतिक दलों के जवाब से पहले स्वयं सरकार शपथपत्र देकर यह कह चुकी है कि राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने से दलों के संचालन में बाधा आएगी। आरटीआई कानून लागू होते समय यह पता ही नहीं था कि पारदर्शिता कायम रखने के लिए लाने वाले इस कानून के तहत राजनीतिक दलों को भी लाया जा सकता है।

बहरहाल, पारदर्शिता से राजनीतिक दलों को परहेज क्यों है? केन्द्रीय सूचना आयोग में जब यह मामला लंबित था तो एक वामपंथी दल के महासचिव ने कहा था कि नैतिक तौर पर हम चाहते हैं कि राजनैतिक दल भी सूचना अधिकार कानून में दायरे में आयें, लेकिन अपील के वक्त वे स्वयं अन्य दलों के साथ राग अलाप रहे हैं कि कानूनी तौर पर यह उचित नहीं है। इस दल का दावा है कि उन्होंने कभी किसी कारपोरेट घराने से फंड नहीं लिया, दल की फंडिंग का स्रोत सिर्फ सदस्यता शुल्क, लेवी और डोनेशन हैं। आयकर रिटर्न नियमित फाइल किये जाते हैं और सौ फीसदी बुक्स ऑफ एकाउंट मेन्टेन किये जाते हैं, लेकिन सूचना अधिकार कानून के दायरे से राजनीतिक दलों को बाहर लाने के अ भियान का यह यह दल अगुवा बना हुआ है।

सूचना अधिकार कानून का चैम्पियन और इस कानून को लाने वाली लग ग 3000 करोड़ कांग्रेस पार्टी का इसके दायरे से बाहर आने की कशमकश और उतावलापन तो समझ आता है, लेकिन जब वामपंथी भी इसके साथ हो जाते हैं तो लगता है कि कुछ गड़बड़झाला है। यूपीए-2 के शासन में घोटालों की लंबी श्रृंखला के सिरमौर कांग्रेसी ही बने हुए हैं। लग ग 1000 करोड़ की भाजपा बाकी दलों का सुर अलाप रही है। ये दोनों दल देश में कारपोरेट जगत के सबसे चहेते हैं। कारपोरेट फंडिंग का हिस्सा इन्हीं दोनों दलों को ज्यादा जाता है और जाहिर है कि पब्लिक से कारोबार के लिये पैसा बटोरने वाली कम्पनियों के लिये मुश्किल है, शेयरधारकों को बताना कि उन्होंने यह ‘दान-पुण्य’ क्यों किया। सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में एक मामले में टिप्पणी की थी- सत्ता की चाह में राजनीतिक दलों ने एक हजार करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च किए लेकिन इस खर्च का न कोई खाता-बही है और न ही जवाबदेही। कहां से पैसा आता है, कहां जाता है, कोई नहीं जानता।

राजनीतिक दलों की 70 फीसदी आय का स्रोत अज्ञात

एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक (एडीआर) रिफॉर्म्स के साल 2013-14 के आंकड़ों के अनुसार देश की छह राष्ट्रीय पार्टियों की कुल आय का 69.3 प्रतिशत अज्ञात स्रोत से आया था। एडीआर के आंकड़ों के अनुसार साल 2013-14 में छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के पास कुल 1518.50 करोड़ रुपये थे। राजनीतिक दलों में सबसे अधिक पैसा बीजेपी (44) के पास था। वहीं कांग्रेस (39.4), सीपीआई(एम) (8), बीएसपी (4.4) और सीपीआई (0.2) का स्थान था। स ी राजनीतिक दलों की कुल आय का 69.30 प्रतिशत अज्ञात स्रोतों से आया था। राजनीतिक पार्टियों को अपने आयकर रिटर्न में 20 हजार रुपये से कम चंदे का स्रोत नहीं बताना होता। पार्टी की बैठकों-मोर्चों से हुई आय ी इसी श्रेणी में आती है। साल 2013-14 तक सभी छह राष्ट्रीय पार्टियों की कुल आय में 813.6 करोड़ रुपये अज्ञात लोगों से मिले दान था। वहीं इन पार्टियों को पार्टी के कूपन बेचकर 485.8 करोड़ रुपये की आय हुई थी।

जब के आंकड़े हैं तब कांग्रेस सत्ता में थी और बीजेपी विपक्ष में और यही दोनों दल अज्ञात स्रोत से चंदे के मामले में भी बाकी पार्टियों से आगे थे। साल 2013-14 में कांग्रेस की कुल आय 598.10 करोड़ थी जिसमें 482 करोड़ अज्ञात स्रोतों से आए थे। कांग्रेस को कुल आय का 80.6 प्रतिशत अज्ञात स्रोतों से मिला था। बीजेपी की कुल आय 673.8 करोड़ रुपये थी जिसमें 453.7 करोड़ रुपये अज्ञात स्रोतों से आए थे। बीजेपी को कुल आय का 67.5 प्रतिशत अज्ञात स्रोतों से मिला था। सीपीआई (एम) की कुल आय 121.9 करोड़ रुपये थी जिसमें अज्ञात स्रोतों से आय 58.4 करोड़ रुपये थी। सीपीआई (एम) की कुल आय के 47.9 प्रतिशत का स्रोत अज्ञात था।

लोक प्राधिकार का दायरा

राजनीतिक दलों का तर्क है कि वे सरकारी दफ्तर नहीं हैं, लोक प्राधिकार की परिभाषा में नहीं आते हैं। सूचना अधिकार कानून 2005 की धारा 2 (एच) की बात करें तो राजनीतिक दल संविधान के अनुच्छेद के तहत गठित नहीं हैं, संसद ने स्थापित नहीं किया है, न ही सरकार से वित्त संपोषित और सरकार के आदेश से गठित हुए हैं। राजनैतिक दलों की स्थापना, उद्देश्य और कार्य-कलापों की बात करें तो यह कभी निजी किस्म का नहीं रहा है। राजनीतिक दलों के चरित्र और कामकाज के तौर-तरीकों और मूल्यों में गिरावट के बाद भी दलों के लिये जनता सर्वोपरि है। रात-दिन लोकतंत्र और जनता की दुहाई देने वाली इन संस्थाओं को जनता के सवाल से ही डर लग रहा है तो लोकतंत्र का विष्य सहज दिखता है। कौन नहीं जानता है कि राजनीतिक दल सरकारी खर्चे पर चुनाव नहीं लड़ते हैं, राजनीति का संचालन वे लोगों से प्राप्त चंदे, अनुदान और शुल्क से करते हैं और जनहित के मद्देनजर ही तो आयकर की धारा 13 (ए) के तहत इन्हें 100 फीसदी आयकर छूट प्राप्त है।

राजनीतिक दल यह भ्रम फैला रहे हैं कि केन्द्रीय सूचना आयोग के इस फैसले को मानने से दलों की स्वतंत्रता और संप्र भुता खतरे में पड़ जायेगी। सूचना आयोग राजनीतिक दलों को अपने हिसाब से संचालित करने लगेगा। यह बताना समीचीन होगा कि आयोग का काम सिर्फ यह देखना भ र है कि संस्था, लोक प्राधिकार की परिभाषा में आते हैं कि नहीं और यदि लोक अधिकार हैं तो सूचना मांगने वाले के हितों की रक्षा और मांगी गयी जानकारी उपलब्ध हो रही है या नहीं। प्रधानमंत्री कार्यालय, सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट विधानस भा, संसद सब तो सूचना अधिकार के दायरे में आते हैं, क्या आयोग इनके कार्यों में हस्तक्षेप कर रहा है? यह उम्मीद की जाती है कि कानून का अनुपालन स भी को करना है, राजनीतिक दलों को भी। देश के 2500 से ज्यादा कानूनों में से सूचना अधिकार भी कानून है और इसके अनुपालन की उम्मीद की जाती है।

सूचना आवेदनों का अंबार लगेगा

2005 में सूचना अधिकार कानून के लागू लाते समय यह तर्क दिया जा रहा था सरकार और लोक प्राधिकार इस कानून के चलते परेशान हो जायेंगे। सूचना अधिकार कानून के लाखों आवेदन आयेंगे और लोक अधिकारों को मूल काम छोड़ सिर्फ सूचना कानून का अनुपालन ही करना पड़ेगा, लेकिन आठ सालों का अनु व बताता है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। झारखंड की बात करें तो लग ग 4000 मामले राज्य सूचना आयोग के पास लंबित हैं, वो भी इसलिए कि आयोग का पूर्ण गठन नहीं हो पाया है। आठ सालों में लग ग 32 हजार के आसपास ही सूचना अधिकार के आवेदन प्राप्त हुए हैं। लग ग सवा तीन करोड़ की आबादी वाले प्रदेश में आठ सालों में महज 32 हजार आवेदन का आना इस बात का द्योतक है कि सूचना अधिकार कानून लोक प्राधिकारों के कामकाज को प्र ावित नहीं कर रहा है। राजनीतिक दलों का तो दावा है कि इनकी सदस्यता हर साल लाखों मेें बढ़ती है, फिर एक-दो व्यक्ति भी इस योग्य नहीं है, जो जन सूचना पदाधिकारी की भूमिका निभा सकें। फिर राष्ट्र, राज्य, जिला से लेकर बूथ स्तर तक कमेटियों और दफ्तर के होने के दावे के बाद ी राजनीतिक दलों को इस कानून के अनुपालन में क्यों दिक्कत आयेगी? सूचना अधिकार कानून की धारा 4(1) (बी) का अनुपालन किया जाये तो सूचना आवेदन लेने और देने की जरूरत ही कम पड़ेगी। यानी कानून के तहत जिन 16 बिन्दुओं पर स्वतः जानकारियां उपलब्ध करानी हैं, उसे पार्टी चाहे तो अपने वेबसाइट पर डाल सकती है। इन जानकारियों में राजनीतिक दल एक संस्था के बतौर ज्यादातर जानकारियों का खुलासा कर पायेंगी।

गोपनीयता बिना राजनीति कैसी!

राजनीतिक दलों का कहना वाजिब है कि जब गोपनीयता रहेगी ही नहीं तो राजनीति क्या खाक होगी? राजनीति में रणनीति और सही समय पर राजनीतिक फैसलों का बड़ा महत्व है और ऐसे में सूचना अधिकार कानून का इस्तेमाल कर रणनीतियों का खुलासा कर दिया जाये तो दलोें का विष्य खतरे में पड़ जायेगा? सूचना अधिकार कानून कहां यह हक देता है कि लोग सब कुछ जानें ही। कानून की बुनियाद ही दो शर्तों पर टिकी है- यदि सूचना में जनहित हो और यदि उसे पार्लियामेंट या विधानस भा में सार्वजनिक किया जा सकता हो। फिर कानून की धारा 8 में सूचना देने से इनकार करने के दर्जनों वैधानिक पहलू मौजूद हैं। मसलन, यदि मांगी गयी जानकारी का वास्ता रणनीति से हो, जानकारी का वास्ता किसी जांच से हो, एकदम निजी प्रकृति का हो, सूचना के खुलासे से व्यापारिक हित खतरे में पड़ता हो आदि-आदि। यह सूची इतनी लंबी है कि कई बार भ्रम होता है कि सूचना मांगने के लिये बचा ही क्या है? राजनीतिक दल कहां पारदर्शी और जवाबदेह नहीं हैं। कांग्रेस के एक पूर्व सांसद बताते हैं कि हम निर्वाचन आयोग और आयकर वि भाग के प्रति पारदर्शी और जवाबदेह हैं, फिर हर व्यक्ति के प्रति पारदर्शी और जवाबदेह होने की क्या जरूरत है? जिन्हें सूचना चाहिए वे इन दानों लोक प्राधिकारों से सूचनाएं मांग लें।

हर साल आयकर वि भाग में पार्टी का रिटर्न दाखिल होता है। पार्टी के संगठनात्मक चुनाव से लेकर पदधारियों का ब्यौरा और सदस्यता की अहर्ता संबंधी सारी जानकारियां निर्वाचन आयोग को उपलब्ध करायी जाती हैं। इसके बाद और पारदर्शी नहीं होने का आरोप लगाना बेमानी है। सच तो यह है कि राजनीतिक दल निर्वाचन आयोग और आयकर वि भाग के पास सूचना तो देते हैं, लेकिन ये जानकारियां बड़ी सीमित और अस्पष्ट होती हैं। निर्वाचन आयोग और आयकर वि भाग के पास राजनीतिक दल सिर्फ 20 हजार रुपये से ऊपर के ही दानदाताओं के नाम, पते एवं अन्य ब्यौरे बताते हैं। 20 हजार के नीचे वाले अनुदान की जानकारी नहीं दी जाती है। आयकर वि ाग के पास दायर आयकर रिटर्न के ज्यादार मामलों में स्रोत का खुलासा नहीं होता है। आजसू (आल झारखंड स्टुडेंट्स यूनियन) ने पांच साल से रिटर्न ही फाइल नहीं किया है। झामुमो का कहना है कि उसके पास दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं। रांची के नगर निकायं के निर्वाचन में मेयर पद की कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार श्रीमती रमा खलखो पर चुनाव खर्च के नाम पर होटल में पैसे बांटने का आरोप लगा और 21 लाख रुपये पुलिस द्वारा जब्त किये गये तो प्रमाणित करने की कोशिश हुई कि ये पैसे चंदे के थे। कांग्रेस ने बजाप्ता बैठक कर राज्य निर्वाचन आयोग और पुलिस को जानकारी दी कि पैसे चंदे के थे। चंदे के स्रोत नहीं बताये गये, क्योंकि चंदे की रकम 20 हजार रुपये से ज्यादा की नहीं थी। एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल ने एक मुट्ठी चावल और एक रुपये के नारे के साथ सदस्यता अ भियान चलाया और प्रदेश की आबादी से कई गुना ज्यादा राशि पार्टी फंड में आ गयी!

आमदनी पर 100 फीसदी छूट

राजनीतिक दलों की तरह एनजीओ, ट्रस्ट, अस्पताल, स्कूल, खेल संघों को आयकर छूट प्राप्त है। लेकिन इन्हें आयकर छूट के लिये आयकर की वि भिन्न धाराओं का अक्षरशः पालन करना पड़ता है, जबकि राजनीतिक दलों की आयकर छूट के मामले में सिर्फ इतनी व्यवस्था है कि उन्हें हर साल निर्वाचन आयोग के पास 20 हजार से ज्यादा दान देने वालों की सूची और रिपोर्ट सौंपनी है। न तो उनके एकाउंट्स की स्क्रूटनी होती है और न ही स्रोत आदि की पूछताछ होती है। फिर एनजीओ, ट्रस्ट, अस्पताल, स्कूल के जनहित और राजनीतिक दलों के जनहित में बड़ा फर्क है। राजनीतिक दल बड़े ही महत्वपूर्ण और ताकतवर संस्थाएं होती हैं। राजनीतिक दलों में सरकार और सरकार के वि भिन्न अंगों को नियंत्रित करने की अकूत शक्ति है। राजनीतिक दल व्हीप जारी कर अपने सदस्यों को पार्लियामेन्ट या स्टेट असेम्बली में खास मामले, मुद्दे या व्यक्ति के पक्ष में करने की स्थिति में हैं। राजनीतिक दल सरकार बनाते हैं और सरकार को नियंत्रित भी करते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार पारदर्शिता कानून के दायरे में हो और सरकार को नियंत्रित करने वाले नहीं, यह तर्कसंगत नहीं लगता है।

राजनीतिक दल विशेषकर क्षेत्रीय दलों का ऑफिस प्रबंधन ठीक नहीं है। दस्तावेज, मिनट रजिस्टर, सदस्यों की सूची, दानदाताओं के नाम-पते, महत्वपूर्ण फैसलों की प्रतियां आदि से संबंधित जानकारियां सामान्यतः आसानी से राजनीतिक दलों से प्राप्त नहीं हो पाती हैं। एक अध्ययन के लिये राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों की मांग की गयी। घोषणा पत्र जैसे सार्वजनिक दस्तावेज को प्राप्त करने के लिये अध्यक्ष, महासचिव और फलां नेता तक को फोन किया गया, संपर्क किया गया तो घोषणा पत्र प्राप्त हुआ।

जर्मनी, कनाडा जैसे देशों में छोटे-छोटे राजनीतिक दलों के दफ्तर संचालन की स्थिति किसी कारपोरेट ऑफिस से कम नहीं है। सूचनाएं, जानकारी, दस्तावेज सब कुछ व्यवस्थित तरीके से रखे गये हैं और कोई भी व्यक्ति बिना सूचना अधिकार कानून का इस्तेाल किये हुए कई महत्वपूर्ण सूचनाएं हासिल कर सकता है। यहां का अनु व बताता है कि ज्यादातर क्षेत्रीय दलों में सूचनाएं और जानकारियां सिर्फ और सिर्फ दल के अध्यक्ष के पास होती हैं और वे चाहेंगे तो सूचनाएं मिलेंगी, नहीं तो नहीं। सूचना अधिकार कानून की वजह से राजनीतिक दलों के रिकार्ड के रखरखाव और दफ्तर के कार्यशील होने की सं ावना बढ़ेंगी। राजनीतिक दलों का इसके लिये चिंतित होने की जरूरत नहीं है कि सूचनाएं नहीं हों तो क्या किया जाये? सूचना अधिकार कानून में सिर्फ वहीं सूचनाएं उपलब्ध करानी हैं जो संचिका में उपलब्ध है, सूचनाएं गढ़नी नहीं हैं।

सब्सिडी का सौदा

केन्द्रीय सूचना आयोग ने 3 जून 2013 के फैसले में राजनीतिक दलों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर सरकार से प्राप्त होने वाले विशेष ला ों का जिक्र किया है। राजनीतिक दलों को दफ्तर के लिये दिल्ली के पॉस इलाके में निःशुल्क या बाजार दर से काफी कम मूल्य पर जमीन उपलब्ध करायी गयी है। सस्ते दर पर आवासीय सुविधा, पूर्ण टैक्स छूट और चुनाव के वक्त दूरदर्शन और आकाशवाणी में प्रचार के लिये फ्री में उपलब्ध टाइम स्लॉट, ये सब आरटीआई की धारा 2 (एच) के दायरे में आते हैं। एडीआर ने वित्तीय वर्ष 2009 में राजनीतिक दलों पर सरकार द्वारा इन मदों पर खर्च की गई राशि का ब्यौरा प्राप्त किया है। सरकार ने भाजपा पर 79,59 करोड़, कांग्रेस पर 175,63 करोड़, बसपा पर 5,1 करोड़,सीपीआई पर 1,21 करोड़, सीपीएम पर 8,28 करोड़, एनसीपी पर 9,63 और राजद पर 1,34 करोड़ रुपये खर्च किये। लेकिन केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले महज इसी आधार पर नहीं हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग ने फैसलों से पहले सारी राजनीतिक दलों को अपना पक्ष रखने का मौका दिया। केंद्रीय सूचना आयोग ने इस मामले में निर्वाचन आयोग और आयकर वि ाग के पक्ष को जाना और स्पष्टतः इनकी अनापत्ति के बाद ही फैसले लिये गये। मूलतः तीन आधार पर राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की वकालत की गयी। पहला आधार राजनीतिक दलों को सरकार से प्राप्त होने वाली प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष वित्तीय सहायता, दूसरा आधार- राजनीतिक दलों की लोकहित प्रकृति और तीसरे आधार के तौर पर राजनीतिक दलों द्वारा संवैधानिक और वैधानिक अधिकारों और दायित्वों के निर्वहन को रखा गया। भारतीय विधि आयोग के चुनाव संबंधी सुधारों पर 170वीं रिपोर्ट के अनुसार- ये राजनीतिक दल होते हैं, जो सरकार का गठन करते हैं और देश पर शासन करते हैं, इसलिए आवश्यक है कि राजनीतिक दलों के कामकाज में आंतरिक लोकतंत्र, जवाबदेही और वित्तीय पारदर्शिता हो।

केन्द्रीय सूचना आयोग के फैसले के विरुद्ध स भी दल लामबंद हैं। भ्रष्टाचार और राजनैतिक दलों के चरित्र और करतूतों से देश की जनता ऊब चुकी है। जनता अब सिर्फ वोट डालने की भूमिका में नहीं रहना चाहती है। वह गवर्नेंस में अपनी भागीदारी नि भाना चाहती है। भ्रष्टाचार, राजनेताओं और राजनीतिक दलों के विरुद्ध लोगों का गुस्सा फूट रहा है। हाल के दिनों में लोकपाल विधेयक को लेकर दिल्ली में और देश के अन्य हिस्सों में विरोध प्रदर्शन की श्रृंखला एहसास कराने को काफी है कि या तो राजनीतिक दल खुद को बदले अन्यथा लोग उन्हें बदल देंगे। ठीका-पट्टा, राजनीतिक-कारपोरेट गठजोड़ और घोटालों की लंबी श्रृंखला ने राजनीतिक दलों के कामकाज और जनहित के दावों के प्रति अनादर का भाव पैदा कर दिया है। सूचना अधिकार कानून के दायरे में आने के फैसले का स्वागत कर राजनीतिक दल एक नया राजनीतिक मूल्य गढ़ सकते हैं। क्या राजनीतिक दलों में इतना नैतिक बल बचा है?

राजनीतिक दल यह भ्रम फैला रहे हैं कि केन्द्रीय सूचना आयोग के इस फैसले को मानने से दलों की स्वतंत्रता और संप्र भुता खतरे में पड़ जायेगी। सूचना आयोग राजनीतिक दलों को अपने हिसाब से संचालित करने लगेगा। यह बताना समीचीन होगा कि आयोग का काम सिर्फ यह देखना भ र है कि संस्था, लोक प्राधिकार की परि ाषा में आते हैं कि नहीं और यदि लोक अधिकार हैं तो सूचना मांगने वाले के हितों की रक्षा और मांगी गयी जानकारी उपलब्ध हो रही है या नहीं। प्रधानमंत्री कार्यालय, सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट विधानस भा, संसद सब तो सूचना अधिकार के दायरे में आते हैं, क्या आयोग इनके कार्यों में हस्तक्षेप कर रहा है? यह उम्मीद की जाती है कि कानून का अनुपालन स ी को करना है, राजनीतिक दलों को भी। देश के 2500 से ज्यादा कानूनों में से सूचना अधिकार भी एक कानून है और इसके अनुपालन की उम्मीद की जाती है।

Source: संवाद मंथन