वोट बहिष्कार के आगे और ‘नोटा’ में समाधान ढूंढ़ना होगा

बिहार के लक्खीसराय अंतर्गत कई गांवों के लोगों को गर्मी के दिनों में कई किलोमीटर दूर से पेयजल ढो कर लाना पड़ता है। चार सौ घरों के मझियांवा में बारह सौ मतदाता हैं, जो पिछले लोकसभा चुनाव में आज़ादी के बाद मिले सबसे बड़े और क्रांतिकारी वोट के अधिकार का बहिष्कार कर दिया, लेकिन उनकी मांगे देश की आज़ादी के बीते 74 वर्षों में पूरी नहीं हो पाई। आज भी उनके लिए पेयजल जीवन ही सबसे बड़ी हसरत है। बिहार के चुनाव में नक्सली संगठनों द्वारा वोट बहिष्कार की पुरानी परम्परा रही है। नक्सल प्रभाव वाले इलाकों में इसका प्रभाव भी दिखता था, लेकिन आज़ादी के 66 वर्षों के बाद अमोघ अस्त्र के रूप में ‘नोटा’ मिला है, किन्तु लोकतंत्र के सफर में हम आज जीवन की नैसर्गिक जरूरतों को पूरा करने के लिए “नोटा” के प्रयोग के आगे कुछ भी सोच पाने में असमर्थ  साबित हो रहे हैं। लोकतंत्र में असहमति का अधिकार सभी को है।  नोटा के अस्तित्व में आने के पीछे यही दर्शन रहा है। भारत के लोकतंत्र के इतिहास में एक महत्वपूर्ण फैंसला 27 सितम्बर 2013 को उस समय सामने आया जब सर्वोच्च न्यायालय ने पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) द्वारा दाखिल की गयी एक जनहित याचिका का निपटारा करते हुए भारत के निर्वाचन आयोग को आदेश दिया कि वह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में उपरोक्त में से कोई नहीं (नोटा) का बटन लगाये ताकि जो मतदाता चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों में से किसी को भी वोट न देना चाहते हो वह अपना वोट गोपनीयता बनाये रखते हुए अपने विकल्प का इस्तेमाल कर सके।

 

2019 के लोक सभा में एक तिहाई सीटों पर आठ लाख से अधिक वोट मिले। सबसे अधिक जहानाबाद में 27 हज़ार 683 बार नोटा बटन दबा जहानाबाद में। ‘नोटा’ ने जहानाबाद के चुनावी नतीजों को प्रभावित किया। इस सीट पर हार जीत का अंतर महज 1751 वोटों का है, जबकि यहाँ नोटा को 27 हज़ार 683 मत मिले। देश भर में लोक सभा की कई सीटें ऐसी रही जहां पर जीत का अंतर नोटा को मिले वोटों से भी कम रहा। करीब दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर प्रत्याशियों को नोटा की वजह से हार झेलनी पड़ी। भारत 2014 से भारत में नोटा को अपनाया गया। पहली बार 15 लाख से ज्यादा वोट नोटा को आया था। 16 वीं बिहार विधानसभा के लिए चुनाव में नोटा का जबरदस्त प्रभाव देखा गया। इसने 23 सीटों पर सीधे तौर पर परिणाम को प्रभावित किया। इन 23 सीटों पर जितने मतों के अंतर से जीत हासिल हुई। उससे कही अधिक नोटा के पक्ष में बटन दबे। यह चुनाव इस मायनों में भी रहा क्योंकि मतदाताओं  ने कई पार्टियों की तुलना में नोटा को ज्यादा वोट दिया।

 

नोटा के तहत होना यह चाहिए कि नोटा को यदि चुनाव में खड़े उम्मीदवारों में यदि सबसे अधिक मत नोटा को मिले तो वह चुनाव रद्द हो जाना चाहिए। उसके बाद पुनः चुनाव करवाए जाने चाहिए जिसमें पूर्व में खड़े उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। यानि पुनः नये उम्मीदवारों के साथ पुनर्मतदान कराये जाने चाहिए। नोटा भारत में नकारात्मक फीडबैक देने का काम करने लगा है, अब कुछ राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि भी नोटा को लेकर नकारात्मक माहौल बनाने में लगे हुए है या इसकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर रहे है जो बिलकुल ही लोकतंत्र की अवधारणाओं की विरुद्ध है। हाल में महाराष्ट्र और हरियाणा स्टेट इलेक्शन कमीशन की पहलकदमी से नोटा के प्रति भरोसा जगा है। 6 नवंबर – 2018 को महाराष्ट्र में स्टेट इलेक्शन कमीशन ने एक ऑर्डर पास किया है कि नोटा को यदि बहुमत मिल जाता है तो पुनर्मतदान कराया जाएगा। 22 नवंबर – 18 को हरियाणा स्टेट इलेक्शन कमीशन ने भी यही निर्णय लिया। इसकी एक वजह थी कि महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय चुनाव में कई ऐसी सीटें थी जिसमें नोटा को बहुमत मिला था। पुणे के एक पंचायत में नोटा को 85 प्रतिशत वोट मिल गया। यही ऑर्डर यदि देश व्यापी हो जाए तो उम्मीद है देश में नोटा की प्रासंगिकता बढ़ जाएगी और वोट बहिष्कार की धारा को भी मुकाम मिल जाएगा।

मूल रूप से प्रभात खबर में प्रकाशित