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चुनावी प्रक्रिया में ठोस सुधार किए बिना महिलाओं के विरुद्ध जघन्य अपराध खत्म करना संभव नहीं

हैदराबाद में एक पशु चिकित्सक युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म और उसकी हत्या कर उसके शव को जलाने की जो नृशंस घटना घटी उससे पूरे देश में गम और गुस्सा दिखाई दिया। देश भर के लोगों का रोष स्वाभाविक भी था, लेकिन जो आक्रोश संसद में और संसद के बाहर विभिन्न दलों के नेताओं ने जाहिर किया वह कुछ अटपटा-सा लगा। अटपटा इसलिए कि जो नेता इस बर्बरता पर इतना आक्रोश दिखा रहे थे उन्हें यह बात क्यों नहीं याद आई कि उनके अपने ही दल इसी मुद्दे पर क्या करते हैं? इस घटना पर छह दलों के नेताओं ने सबसे अधिक आक्रोश जताया। ये दल हैं समाजवादी पार्टी, द्रविड़ मुनेत्र कषगम, तृणमूल कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस।

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चुनाव में दुष्कर्म के मुकदमे वालों को टिकट देने से परहेज नहीं करती पार्टियां

इनमें से दो दलों भाजपा और कांग्रेस ने 2019 के लोकसभा चुनाव में ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दिए जिन्होंने अपने शपथपत्र में लिखा था कि अदालतों में उनके विरुद्ध दुष्कर्म के मुकदमे चल रहे हैं। ऐसे लोगों को टिकट देने में ये दो दल अकेले नहीं हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, वाइएसआर कांग्रेस पार्टी और शिवसेना ने भी ऐसे कई उम्मीदवारों को टिकट दिए, जिनके विरुद्ध दुष्कर्म के मुकदमे चल रहे थे। बाकी आक्रोश दिखाने वाले नेताओं के दल भी इसमें पीछे नहीं हैं। उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव में दुष्कर्म के मुकदमे वालों को टिकट भले ही न दिया हो, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि कोई बाकी दलों से अलग नहीं है। बसपा ने लगातार तीन लोकसभा चुनावों 2004, 2009 और 2014 में दुष्कर्म के आरोप वाले उम्मीदवारों को टिकट दिए। सपा ने भी ऐसा ही किया था। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि बीते दिनों उन्नाव के चर्चित दुष्कर्म मामले में जिस कुलदीप सिंह सेंगर को दोषी करार दिया गया वह भाजपा सेनिष्कासित विधायक है।

लोकतंत्र के मंदिर में मौजूद तीन सांसदों पर दुष्कर्म के मुकदमे चल रहे हैं

किसी भी समाज के लिए यह बहुत दुखदाई होगा कि उसकी संसद में ऐसे सदस्य हों, जिन पर दुष्कर्म जैसे घृणित अपराध के आरोप लगे हों। खेद है कि हमारी वर्तमान संसद में तीन सदस्य ऐसे हैं जिन पर दुष्कर्म के मुकदमे चल रहे हैं। ये तीन सांसद भाजपा, कांग्रेस और वाईएसआर कांग्रेस पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह तो देश की सर्वोच्च पंचायत और लोकतंत्र के मंदिर संसद का हाल है। अगर हम विधानसभाओं में जाएं तो वहां की हालत तो और भी खराब है। अगर दुष्कर्म से आगे बढ़कर ऐसे उम्मीदवारों या विधायकों की संख्या देखें जो ‘महिलाओं के विरुद्ध आरोपों’ में आरोपित हैं तो वह संख्या और भी अधिक हो जाती है। सवाल है कि दुष्कर्म के खिलाफ नेताओं का यह आक्रोश दिखावटी क्यों है?

दिल्ली का निर्भया कांड ने खोली थी सरकार की आंखें

आज से करीब सात साल पहले हैदराबाद जैसी बर्बर दुष्कर्म की घटना दिल्ली के वसंत विहार इलाके में घटी थी। चूंकि यह बर्बरता देश की राजधानी में हुई इसलिए उसे लेकर विरोध-प्रदर्शन कहीं ज्यादा देखने को मिला। यह रोष जनता में तो था ही, राजनीतिक दलों के नेताओं ने भी उसकी बहुत भर्त्सना की और कानून को और भी सख्त बनाने की मांग की।

महिलाओं के विरुद्ध अपराध पर वर्मा समिति के सुझाव हुए बेअसर

इस विरोध के कारण तत्कालीन केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति बनाई। उसे देश के आपराधिक कानूनों की समीक्षा करने का काम सौंपा गया। साथ ही यह बताने के लिए कहा गया कि आखिर इन कानूनों में ऐसे क्या बदलाव किए जाएं कि महिलाओं के विरुद्ध अपराध करने वालों के खिलाफ मुकदमे बिना किसी विलंब के चलें? किस तरह ऐसे मामलों की त्वरित सुनवाई कर दोषियों को और भी कड़ी सजा दी जा सके? इसमें कोई दो राय नहीं कि जेएस वर्मा समिति ने बहुत मेहनत से काम किया। उसने 30 दिनों में ही सरकार को अपनी रिपोर्ट सौैंप दी। रिपोर्ट में उसने बहुत सारे सुझाव दिए। उन सुझावों के आधार पर कानून में कुछ छोटे-मोटे बदलाव किए गए, लेकिन जैसा कि देख सकते हैैं कि अपराधियों पर उनका कोई खास असर नहीं हुआ। हैदराबाद की जघन्य घटना से भी यह साबित होता है।

महिलाओं के विरुद्ध अपराध रोकने के लिए चुनाव सुधार आवश्यक

जेएस वर्मा समिति ने अपनी रिपोर्ट में 44 पृष्ठों का एक अध्याय भी लिखा था, जिसका शीर्षक है ‘चुनाव सुधार’। उस अध्याय में लिखा है कि देश में महिलाओं के विरुद्ध अपराध रोकने के लिए चुनावी प्रक्रिया में सुधार करना अत्यंत आवश्यक है। दूसरे शब्दों में कहें तो चुनावी प्रक्रिया में ठोस सुधार किए बिना महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में कमी करना असंभव है।

जब तक संसद में आपराधिक किस्म के लोग बैठे हैं तब तक कानून पर विश्वास करना कठिन

समिति ने यह भी कहा था कि जब तक संसद में ऐसे लोग बैठे होंगे जो आपराधिक मामलों में आरोपी हैं तब तक देश की कानून बनाने की शैली और तौर-तरीके पर भी विश्वास करना बहुत कठिन है। समिति ने लिखा कि वह यह जानकर चकित रह गई कि उस समय छह विधायक ऐसे थे जिन्होंने स्वयं शपथ लेकर लिखा था कि उनके विरुद्ध दुष्कर्म के मुकदमे चल रहे हैैं।

जिनके विरुद्ध दुष्कर्म के मुकदमे चल रहे थे उन्हीं को थमा दिया विधानसभा चुनाव का टिकट

समिति इस पर भी बहुत चकित हुई थी कि पिछले पांच वर्षों में विभिन्न राजनीतिक दलों ने विधानसभा चुनावों में 27 ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दिए जिनके विरुद्ध दुष्कर्म के मुकदमे चल रहे थे। समिति ने उच्चतम न्यायलय के विचारों का जिक्र करते हुए कहा था कि स्वाधीनता के 50 वर्ष पूरे होने पर संसद ने अगस्त 1997 में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें राजनीति के अपराधीकरण पर घोर चिंता जाहिर की गई थी। उसमें कहा गया था कि राजनीति के अपराधीकरण को समाप्त करने के भरसक प्रयत्न किए जाएंगे। उस अध्याय के अंत में समिति ने लिखा कि राजनीति में अपराधीकरण तभी समाप्त हो सकता है जब राजनीतिक दल यह करना चाहेंगे।

कानून बनाने का अधिकार केवल संसद को है- उच्चतम न्यायालय

समिति ने आगे लिखा कि हम तो राजनीतिक दलों से केवल निवेदन, प्रार्थना, विनती ही कर सकते हैं कि वे इन सब अच्छे इरादों को वास्तव में कारगर करें। यही बात 25 सितंबर, 2018 को एक बार फिर उच्चतम न्यायालय के समक्ष आई। पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन ने एक जनहित याचिका में उच्चतम न्यायालय से प्रार्थना की कि जिनके विरुद्ध गंभीर आरोप हैैं और जिनका संज्ञान न्यायालय ले चुका है उन्हें चुनाव में उम्मीदवार बनाने पर कानूनी तौर पर रोक लगाई जाए। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने ऐसा करने से यह कहकर मना कर दिया कि कानून बनाने का अधिकार केवल संसद को है, लेकिन साथ ही उसने संसद से भी कहा कि ऐसे कानून की देश को शीघ्र आवश्यकता है।

सुप्रीम कोर्ट के कहने के बावजूद भी संसद ने भयावह घटनाओं को रोकने के लिए कानून नहीं बनाया

इसके बाद न्यायालय ने संसद से गुजारिश की कि वह देशहित में जल्द से जल्द यह कानून बनाए। यह बहुत ही दुख की बात है कि इस दिशा में अभी तक कुछ नहीं हुआ। आखिर इस सबको देखते हुए हैदराबाद जैसी भयावह घटनाओं पर उनकी ओर से आक्रोश व्यक्त करना अगर दिखावा नहीं है तो और क्या है?