बहुत जरूरी हैं चुनाव सुधार

हाल ही में हैदराबाद की एक विशेष अदालत ने तेलंगाना राष्ट्र समिति की सांसद कविता मलोथ को छह महीने कारावास की सजा सुनायी है. कविता ने 2019 लोकसभा चुनाव में अपने पक्ष में मतदान के लिए लोगों को पैसे बांटे थे. चुनाव के दौरान मतदाताओं को पैसे बांटने के लिए किसी पदस्थ सांसद को अपराधी ठहराने की यह पहली घटना है. कविता से पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति के एक विधायक दनम नागेंदर को एक व्यक्ति के साथ मारपीट करने के जुर्म में विशेष अदालत ने छह महीने की सजा सुनायी थी. देखा जाये तो इस तरह की आपराधिक वृत्तियां राजनीति में बढ़ती जा रही हैं.

राजनीति के अपराधीकरण की पृष्ठभूमि को जानने के लिए बैलेट पेपर के जमाने में जाना होगा. तब बहुत से उम्मीदवार मतदाताओं को डराने-धमकाने के लिए बाहुबलियों का इस्तेमाल करते थे. बाहुबली लोगों को डराने-धमकाने के साथ ही मतदान केंद्र पर लोगों से जबरन किसी खास उम्मीदवार के पक्ष में मत भी डलवाया करते थे. पोलिंग बूथ के स्टाफ को भी ये डराकर रखते थे.

तब बूथ कैप्चरिंग भी हुआ करती थी. कई वर्षों तक ऐसा ही चलता रहा. धीरे-धीरे बाहुबलियों की समझ में आया कि जब राजनेता उनके भरोसे जीत रहे हैं, तो क्यों न वे ही चुनाव में खड़े हो जायें, राजनीतिक दलों को भी लगा कि दूसरे उम्मीदवार को खड़ा करने और उनके लिए मेहनत व पैसे खर्च करने से बेहतर है कि बाहुबलियों को ही टिकट दे दिया जाये. इस तरह राजनीति के अपराधीकरण की शुरुआत हुई और बाहुबली संसद व विधानसभा पहुंचने लगे.

धीरे-धीरे बैलेट पेपर खत्म हो गये, ईवीएम आ गयी. पर राजनीतिक दलों ने अपने सांसद, विधायक बनाने का यह आसान तरीका नहीं छोड़ा. एक दल को देखकर दूसरे दल भी अपने यहां बाहुबलियों को टिकट देने लगे. इस तरह यह परिपाटी बन गयी और लगभग सभी राजनीतिक दलों ने इसे अपना लिया. धीरे-धीरे राजनीति में दागियों की संख्या बढ़ने लगी. वर्ष 2004 की लोकसभा में चुनकर आये 25 प्रतिशत सांसदों पर आपराधिक मामले चल रहे थे. वर्ष 2009 में ऐसे सांसदों की संख्या 30 प्रतिशत थी.

वर्ष 2014 में यह बढ़कर 34 प्रतिशत और 2019 में 43 प्रतिशत हो गया. ऐसे हालात तब हैं, जब राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को लेकर हमलोग लगातार जनता के बीच जाते रहते हैं. राजनीतिक दलों को दागियों को टिकट देने से मना करते रहते हैं, लेकिन हमारी कोई नहीं सुनता. नतीजा, आज संसद में कई ऐसे प्रतिनिधि चुनकर बैठे हैं, जिन पर हत्या, अपहरण और बलात्कार जैसे गंभीर मामले दर्ज हैं. रेड अलर्ट चुनाव क्षेत्र की संख्या भी बढ़ रही है.

यानी एक चुनाव क्षेत्र में तीन या तीन से ज्यादा आपराधिक छवि वाले उम्मीदवार खड़े हो रहे हैं. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में 60 प्रतिशत के करीब चुनाव क्षेत्र रेड अलर्ट थे. एक चुनाव क्षेत्र में चाहे कितने भी उम्मीदवार खड़े हो जायें, जीतने की संभावना कमोबेस दो या तीन की ही होती है. आम तौर पर ये उम्मीदवार प्रमुख दलों के ही होते हैं. यदि जीत की संभावना वाले तीनों उम्मीदवारों के विरुद्ध आपराधिक मामले चल रहे हों, तो मतदाताओं के पास विकल्प क्या है. या तो वे अपना मत हारने वाले उम्मीदवार को दें, या फिर आपराधिक छवि वाले में से किसी एक को. इसलिए ऐसे लोग चुने जाते हैं.

यह भी सच है कि चुनाव के दौरान मतदाताओं को पैसे देने का काम उन्हें लुभाने के लिए किया जाता है. भले ही यह हत्या, अपहरण, बलात्कार जैसे स्तर का अपराध नहीं है, लेकिन इसे सही नहीं ठहराया जा सकता. यह कानूनी तौर पर अपराध है. पर इसे राजनीतिक दलों व उम्मीदवारों ने इतना सामान्य बना दिया है कि अब लोग ही पैसे मांगने लगे हैं. एक बार इस तरह की बात शुरू हो जाने पर लोगों को इसकी आदत पड़ जाती है.

हर क्षेत्र में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो लोगों से मत दिलाने के नाम पर उम्मीदवारों से पैसे लेते हैं. ये बिचौलिये ही सबसे ज्यादा पैसा खाते हैं. मतदाताओं के बीच पैसे या शराब बांटने का काम आम तौर पर चुनाव के ठीक एक रात पहले किया जाता है. यह पूरी तरह से योजनाबद्ध व गुप्त तरीके से होता है. इसका पकड़ में आना बहुत मुश्किल होता है. इसे लगभग सभी करते हैं. जो पकड़ा गया, उसे सजा हो गयी. हालांकि, सांसद कविता को सजा मिलने के बाद भी चुनावी प्रक्रिया पर कोई खास असर नहीं होने वाला.

क्योंकि राजनीतिज्ञों को पैसे बांटने की इतनी आदत पड़ी हुई है कि उसे छुड़वाना बहुत मुश्किल है. दूसरा, सब यही समझते हैं कि भले ही दूसरे पकड़े गये हैं, पर वे पकड़ में नहीं आयेंगे. मत खरीदने के लिए पैसे बांटने के खिलाफ ज्यादा से ज्यादा प्रचार होना चाहिए, क्योंकि यह गलत है. यदि ऐसा होता है, तो बहुत अच्छा होगा, लेकिन ऐसा होना बहुत मुश्किल है.

राजनीति में बढ़ती अपराधिक प्रवृत्ति को रोकने के लिए दो काम करने चाहिए. पहला, राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र बहाल होना चाहिए. सिर्फ हाइकमान ही फैसला करे, यह सही नहीं है. इस तरह से लोकतंत्र नहीं चलता है. राजनीतिक दलों को अपने आंतरिक मामलों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया इस्तेमाल करनी होगी. तभी जाकर आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के राजनीति में आने पर रोक लग पायेगी. दूसरा है वित्तीय पारदर्शिता. राजनीतिक दलों को कितना पैसा मिला, कहां से मिला, कैसे मिला, वह कहां, कितना और कैसे खर्च हुआ, इसके बारे में जनता को पता होना चाहिए.

लेकिन लगभग सभी राजनीतिक दल वित्तीय पारदर्शिता से इनकार करते हैं. इसका कारण है कि हर दल में गुट बन गया है. दल के भीतर का यही छोटा गुट पार्टी को नियंत्रित करता है. पार्टी का पैसा, संपत्ति सब उसी के हाथ में है. टिकट भी वही बांटता है. तो ये जो निहित स्वार्थ है, उसी ने राजनीतिक दलों को अपने चंगुल में फंसा रखा है. जब तक राजनीतिक दलों को लोकतांत्रिक नहीं बनाया जायेगा, तब तक कुछ नहीं बदलेगा.

इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय को आगे आना होगा. सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार है कि यदि कानून में कोई कमी है, जिस पर संसद ने अभी तक गौर नहीं किया है और उसकी वजह से जनहित को हानि पहुंच रही है, तो वह कानून बना सकता है. और वो तब तक मान्य रहेगा, जब तक संसद उसे लेकर कोई कदम नहीं उठाती है. चुनाव आयोग के अधिकार सीमित हैं. वह कानून से बाहर नहीं जा सकता. राजनीति में शुचिता लाने के लिए जनता को अपनी आवाज बुलंद करनी होगी और न्यायपालिका को इसका संज्ञान लेकर निर्णय करना होगा. तभी परिवर्तन संभव है.

 

यह लेख मूल रूप से प्रभात खबर द्वारा प्रकाशित है.