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Assembly Election 2022: चुनाव में मतदाता करे अपने प्रतिनिधि का चयन

मतदाता चुनाव के मुख्य अंग हैं। हमारी चुनाव प्रणाली में मतदाताओं से पूछकर उम्मीदवार उतारने की कोई प्रक्रिया ही नहीं है। राजनीतिक पार्टियां किसी को भी कहीं से खड़ा कर देती हैं। इसीलिए पार्टी बदलते समय नेताओं को जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं अनुभव होती है।

चुनाव का एलान होते ही नेताओं का दलबदल शुरू हो गया है। नेताओं के इस दलबदल में सबसे ज्यादा ठगा महसूस करता है मतदाता। ऐसा इसलिए भी होता है कि हमारी चुनावी व्यवस्था में मतदाताओं से पूछकर उम्मीदवार उतारने की कोई प्रक्रिया ही नहीं है। राजनीतिक पार्टियां किसी को भी कहीं से खड़ा कर देती हैं और मतदाताओं को उन्हीं में से चुनना होता है। उम्मीदवार का फैसला जमीन पर नहीं बल्कि पार्टियों के हाईकमान से होता है। जनता की इसमें कोई भूमिका नहीं होती। इसीलिए पार्टी बदलते समय भी नेताओं को जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं अनुभव होती है।

कई साल पहले कांग्रेस ने हैदराबाद के एक नेता को मुरादाबाद में उतार दिया। स्थानीय कांग्रेसियों ने इसका विरोध किया और प्रचार करने से मना कर दिया। उन दिनों सौ रुपए रोजाना लेकर पोस्टर आदि लगाए जाते थे और प्रचार का काम किया जाता था। उस उम्मीदवार ने उन्हें तीन सौ रुपये रोजाना देने का आफर दिया। सभी मान गए। प्रचार शुरू हो गया। इसलिए पैसे के दबाव में स्थानीय कार्यकर्ता भी विरोध से कतराते हैं।

1935 में बंबई (अब मुंबई) में सहकारिता के लिए काम कर रहे वैकुंठ भाई मेहता को लोगों ने चुनाव में उतरने को कहा लेकिन वह नहीं माने। उन्होंने महात्मा गांधी को पत्र लिखकर पूछा कि क्या करना चाहिए। महात्मा गांधी ने उन्हें जवाबी पत्र में कहा कि लोग कह रहे हैं तो आपको जरूर लड़ना चाहिए, लेकिन आप किसी से वोट मांगने नहीं जाओगे और कोई पैसा खर्च नहीं करोगे। वैकुंठ भाई मेहता ने ऐसा ही किया। वे भारी मतों से चुनाव जीत गए।

ऐसा नहीं है कि लोगों से जुड़ा व्यक्ति चुनाव नहीं जीत सकता है। लेकिन राजनीतिक दलों ने पैसे को इतना महत्व दे दिया है कि अब केवल पैसे वाले या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले ही आगे आ रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि 50 प्रतिशत से ज्यादा सीटों पर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार हैं। राजनीतिक दल भी अब कुछ धनाढ्य सात-आठ परिवारों की बपौती बन गई हैं। ऐसे में मतदाता लाचार होकर रह जाता है।

एक समस्या यह भी है कि चुने गए लोग भी अक्सर पार्टी हाईकमान के हाथ की कठपुतली ही होकर रह जाते हैं। दलबदल विरोधी कानून लाया गया था कि विधायकों, सांसदों की खरीद-फरोख्त न हो सके। हालांकि अब देखने में आता है कि आधी पार्टी ही टूटकर दूसरे में मिल जाती है। जब तक राजनीतिक दलों की कोई जवाबदेही तय नहीं होगी, तब तक इसका कोई हल निकलता नहीं दिख रहा है।

 

यह लेख मूल रूप से दैनिक जागरण द्वारा प्रकाशित है.